सागर वसना पावन देवी सरस सुहावन भारत माँ ।
हिमगिरि पीन पयोधर वत्सल जन मन भावन भारत माँ ॥धृ॥
तेरी रज को सिंचित करने गोरस सरिता बहती थी
गंगा यमुना सिंधु सदा मिल ललित कथायें कहती थी
आज बहाती खंडित होकर करुणा सावन भारत माँ ॥१॥
तेरी करुणा का कण पाने याचक बन जग आता था
तेरे दर्शन से हो हर्षित मन वांछित फ़ल पाता था
आज भिखारी है सुत तेरे उजडा कानन भारत माँ ॥२॥
जाग उठो माँ दुर्गा बनकर कोटी भुजाओंमे बल भरकर
तेरे भक्त पुजारी जन का सागर सा लहरायें अंतर
नत मस्तक हो फिर जग माँगे तेरा आशिष भारत माँ ॥३॥
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