Sunday, June 28, 2020

१०५ . संघ सरिता बह रही है

१०५ . संघ सरिता बह रही है

संघ सरिता बह रही है 
उस भगीरथ की अनोखी विजय गाथा कह रही है ॥ध्रु ०॥

भेदकर विस्तृत शिलाएँ एक लघु धारा चली थी
कन्दरा घन बीहड़ो को चीर निर्भय वह बढ़ी थी
स्वर्ग गंगा बन महानद रुप अनुपम गह रही है ॥१॥

क्रूर बाधाएँ अनेको मार्ग कुंठित कर न पायीं
क्रुध्द शंकर की जटा में वह असीमित क्या समायीं।
जन्हु की जंघा विदारी जान्हवी फिर चल पड़ी है ॥२॥

कर सुसिंचित इस धरा को सुजल-सुफलां उर्वरा
मातॄभू का पुण्यभू का रुप है इसने सँवारा।
शुष्क मरुभू शेष क्यों फिर ताप भीषण सह रही है ॥३॥

दूर सागर दृष्टि पथ में मार्ग में विश्राम कैसा
ध्येयसागर से मिलन का आज संभ्रम सोच कैसा
अथक अविरत साधना की पुण्य गाथा कह रही है ॥४॥

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