दिव्य साधना राष्ट्रदेव की खिले सुगंधित हृदय सुमन
ध्येय एक ही मॉ भारत की गूंजे जय-जय विश्व गगन ||धृ ० ||
शाखा रूपी नूतन मंदिर धन्य-धन्य अपना जीवन
एकनिष्ठ हो ढाल रहा है शुभ संस्कारित तन और मन
स्नेहमयी अनुपम तप धारा ज्ञान सुधा पा सभी मगन ||१ ||
कहां थे साधन कहां थी सुविधा संकट में भी सदा बढे
संकल्पित मन, कर्म, तपस्या, से ही साधक शिखर चढे
स्वाभिमान से विचरें जग में देख सभी में अपनापन ||२ ||
नये-नये शुभ परिवर्तन को अंतर्मन से स्वीकारें
कैसी भी हो कठीण चुनौती हिम्मत अपनी ना हारे
हमने वह क्षमता पायी है वैभव स्वयं करे वंदन ||३ ||
अटल अडिग हे निश्चय अपना ध्येय सुपथ ना छोडेंगे
नवयुग के हम बने भगीरथ गंगाधर भी मोडेंगे
मंगलमय सुंदर रचना हो रात दिवस बस यही लगन ||३ ||
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