१८९ शून्य से एक शतक बनते, अंक की मनभावना |
शून्य से एक शतक बनते, अंक की मनभावना |
भारती की जय विजय हो, ले हृदय में प्रेरणा |
कर रहे है हम साधना, मातृभू आराधना ||धृ०||
दैव ने भी राम प्रभु हित, लक्ष्य था ऐसा विचारा |
कंटकों के मार्ग चलकर, राम ने रावण संहारा |
ताकि निष्कंटक रहे, हर देव ऋषि की साधना ||१||
ध्येयहित को एक ऋषिने, देह को दीपक बनाया |
और तिल-तिल जल स्वयंने,कोटि दीपों को जलाया |
ध्येयपथ पर चल पडे, ले, उर विजय की कामना ||२||
विजीगिषा का भाव लेकर,देश में स्वातंत्र्य आया |
बनें समरस राष्ट्र भारत बोध यह दायित्व लाया |
छल,कपट और भेद से था, राष्ट्र जन को तारना ||३||
धर्म संस्कृति है सनातन, रखें जल वायू सुहावन |
पंक्ति में पीछे खडे का, उन्नयन हो नित्य भावन |
राष्ट्र का उत्थान साधन, विश्वमंगल कामना ||४||