Tuesday, October 7, 2025

१९० विराट राष्ट्रपुरूष के, संघ चरण चल रहे

१९० विराट राष्ट्रपुरूष के, संघ चरण चल रहे

संघ चरण चल रहे !
विराट राष्ट्रपुरूष के, संघ चरण चल रहे ,
विराट हिन्दु राष्ट्र के , संघ चरण बढ़ रहे ॥ ध्रु०॥

आदि मध्य अंत को देख ना सके कोई,
भय चकित रूप को ,देखते रहे सभी,
धर्म स्थापना के काज, सगुण रूप ले रहे ।
संघ चरण चल रहे ॥१॥

आत्म भाव जागरण , यह निदान रोग का,
साध्य और साधना, एक रूप ध्येय का,
विमुख ना हुए कभी, कार्य गुंथते रहे,
संघ चरण चल रहे ॥२॥

एक से अनेक का , मूल तत्व गूंजता,
सिंधु की समष्टि में, बिंदु की सरूपता,
रूप भिन्न भिन्न मात्र, आत्म रूप एक है,
संघ चरण चल रहे ॥३ ॥

Wednesday, September 24, 2025

१८९ शून्य से एक शतक बनते, अंक की मनभावना |

 १८९  शून्य से एक शतक बनते, अंक की मनभावना |


शून्य से एक शतक बनते, अंक की मनभावना |

भारती की जय विजय हो, ले हृदय में प्रेरणा |

कर रहे है हम साधना, मातृभू आराधना ||धृ०||


दैव ने भी राम प्रभु हित, लक्ष्य था ऐसा विचारा |

कंटकों के मार्ग चलकर, राम ने रावण संहारा |

ताकि निष्कंटक रहे, हर देव ऋषि की साधना ||१||


ध्येयहित को एक ऋषिने, देह को दीपक बनाया |

और तिल-तिल जल स्वयंने,कोटि दीपों को जलाया |

ध्येयपथ पर चल पडे, ले, उर विजय की कामना ||२||


विजीगिषा का भाव लेकर,देश में स्वातंत्र्य आया |

बनें समरस राष्ट्र भारत बोध यह दायित्व लाया |

छल,कपट और भेद से था, राष्ट्र जन को तारना ||३||


धर्म संस्कृति है सनातन, रखें जल वायू सुहावन |

पंक्ति में पीछे खडे का, उन्नयन हो नित्य भावन |

राष्ट्र का उत्थान साधन, विश्वमंगल कामना ||४||

Saturday, September 13, 2025

१८८. श्रद्धामय विश्वास बढाकर, सामाजिक सद्भाव जगायें |

 १८८.   श्रद्धामय विश्वास बढाकर, सामाजिक सद्भाव जगायें |


श्रद्धामय विश्वास बढाकर, सामाजिक सद्भाव जगायें |

अपने प्रेम परिश्रम के बल, भारत में नवसूर्य उगायें | 

जाग रहा है जन-गण-मन, निश्चित होगा परिवर्तन ||धृ०||


शुद्ध सनातन परंपरामय, प्रेम भरा व्यवहार रहे | 

ऋषि-मुनीयों की शिक्षाओं पर, चलने का संस्कार रहे |

राह रपटती इस दुनिया में,  कुल-कुटुंब का संरक्षण ||१||


सब समाज अंगांग परस्पर, छुवाछूत लवलेश न हो | 

प्रीती-रीति भर गहन सभी में, भेदभाव अवशेष न हो |

बनें परस्पर पूरक पोषक, हृदयों में रस-धार सृजन ||२||


हरी-भरी हो धरती अपनी, मिट्टी का भी हो पोषण |

पंचतत्व की मंगल महिमा, दिव्य धरा के आभूषण 

पुरखों के विज्ञान-धर्म की, परंपरा का करें वरण ||३||


स्वाभिमान भर, भाव स्वदेशी, स्वत्व बोध का ले आधार |

परहित ध्यान परस्पर पूरक, जनजीवन का शिष्टाचार | 

विश्व मंच पर भारत माॅं के, यश की हो अनुगूॅंज सघन ||४||