Tuesday, October 27, 2020

१७३ . विजिगिषा की गन्ध लेकर, चेतना विकसित हुई है

 १७३ . विजिगिषा की गन्ध लेकर, चेतना विकसित हुई है  


विजिगिषा की गन्ध लेकर, चेतना विकसित हुई है 

शक्ति की आराधना की, भावना जगने लगी है ||धृ० || 


पर्वत औ घाटियों में, कुछ जगीं नूतन ऋचाएँ

महमहाकर फिर उठी है, देश की पावन कथाएँ

दे रही आह्वान कितनी, पूर्व-पुरुषों की व्यथाएँ

विजय का जय गान लेकर, आ रही केशर हवाएँ

कुछ नये सामर्थ्य का फिर, भाव प्रकटा हर डगर में

देखकर व्यापक उजाला, सुप्त कलियाँ खिल रही है॥१॥


आज पौरुष के नये स्वर, गुनगुनाते जा रहे है

आज के स्वर हर ह्रदय को, स्पर्श करते जा रहे हैं

हर नवीन उल्लास में हम, स्वर्ण-जीवन पा रहे हैं

आज के हर शब्द जीवन, छन्द रचते जा रहे हैं

ज्योति गरिमा जग रही है, हर मनुज के श्रान्त मन में

हिन्दुता फिर विजयता की, अर्चना करने लगी है॥२॥


रामशक्ति जागृता जब, वानरि अक्षौहिणी

ले चली है जय पताका, कृष्ण की नारायणी

संगठित फिर देव शक्ति, असुर वंश विनाशिनी

शक्ति की साकार यमुना, धर्म की मंदाकिनी

ज्ञान रवि का तेज बिखरा, हर्ष छाया जन ह्रदय में

राष्ट्र शंभू विश्व-पूजित, अस्मिता सजने लगी है॥३॥